Friday, May 17, 2024
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BCC NEWS 24: CG BIG न्यूज़: 2 साल तक ऑस्ट्रेलिया में हुई रिसर्च…कोरबा के युवा वैज्ञानिक डॉ. दीपक द्विवेदी है टीम के मुखिया, रिपोर्ट में कहा- जापान-चीन से भी ज्यादा एडवांस है छत्तीसगढ़ के आदिवासी, जिस लोहे से कलाकृतियां बनाते हैं, उनमें हजार साल तक भी नहीं लगता जंग…

रायपुर: बस्तर और सरगुजा के वनवासी जिस लोहे से कलाकृतियां बनाते हैं, उनमें हजार साल तक भी जंग नहीं लगता। ये बात एक रिसर्च में निकलकर सामने आई है और इस रिसर्च को पर्थ, ऑस्ट्रेलिया के कार्टिन कोरोजन रिसर्च सेंटर ने मान्यता दी है। वहीं के जर्नल में इस शोध को प्रकाशित भी किया गया है। खास बात ये है कि ये रिसर्च कोरबा के युवा वैज्ञानिक डॉ. दीपक द्विवेदी का है।

कलाकृतियों की मजबूती की जांच करते डॉ. दीपक।

डॉ. दीपक द्विवेदी ने बस्तर-सरगुजा के मेटल खासकर लोहे की प्राचीन कलाकृतियों पर दो साल तक ऑस्ट्रेलिया में इस पर रिसर्च किया कि आखिर इनमें जंग क्यों नहीं लगती? रिसर्च में चीन और जापान में आदिवासियों द्वारा बनाई गई इसी तरह की प्राचीन कलाकृतियों को शामिल किया गया। शोध के नतीजे यह आए हैं कि बस्तर-सरगुजा के वनवासी लोहे को कम तापमान में गर्म कर और पीट-पीटकर कलाकृति बनाते हैं, जिससे लोहे ही पूरी अशुद्धि दूर हो जाती है और यह विश्व की हर सभ्यता में श्रेष्ठतम तकनीक है। यहां कलाकृतियों में इस्तेमाल लोहा इसीलिए चीन-जापान के प्राचीन लोहे से ज्यादा मजबूत और जंग प्रतिरोधक क्षमता वाला पाया गया है।

डा. दीपक के मुताबिक रिसर्च में यह खुलासा भी हुआ कि प्राचीन काल में जापान और चाइना की सभ्यताओं ने कलाकृति बनाने के लिए जिस लोहे का इस्तेमाल किया, बस्तर और सरगुजा के आदिवासियों की कलाकृति में इस्तेमाल लोहे की क्वालिटी पुरानी होने के बावजूद बहुत बेहतर पाई गई है। शुरुआती रिसर्च में इसके तीन कारण सामने आए हैं। पहला, कच्ची भट्ठी में लगातार धौंकनी से तेज होने वाली आग में मैटल को पकाना। कच्ची भट्ठी में तापमान बहुत अधिक नहीं हो पाता, पर इससे लोहा अच्छी तरह गलता है। दूसरा, लोहे को बार-बार गर्म कर पीटा जाता है जिससे मैटल के भीतर के छिद्र बंद हो जाते हैं। तीसरा, जापान-चीन में इस तरह की कलाकृतियां गले हुए या तरल हो चुके लोहे को सीधे सांचे में डालकर बनाई जाती रहीं, जबकि प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में सांचे का इस्तेमाल नहीं हुआ, इससे हवा के बुलबुलों की आशंका के साथ जंग का खतरा और कम हो गया।

16 सौ साल पुरानी कृतियां, 2 साल में 2200 पन्ने का रिसर्च
डॉ. दीपक के मुताबिक रिसर्च के लिए उन्होंने बस्तर-सरगुजा के 12 से ज्यादा लोहे की कलाकृतियों के सैंपल लिए। जनजातीय क्षेत्रों में उसी तरह की कलाकृति बनाने जो तकनीक इस्तेमाल की जा रही है, उसका अध्ययन किया गया। यह आश्चर्यजनक ही था कि अघरिया समुदाय (कोरबा) के कलाकार जिस तकनीक का इस्तेमाल अभी तक कर रहे हैं, वह पांचवीं शताब्दी की है और उसमें अब तक कोई बदलाव नहीं हुआ। यही नहीं, उस समय की कलाकृतियां अब भी जंग मुक्त पाई गई हैं।

जापान से भी ज्यादा एडवांस तकनीक
कोरबा के रहने वाले व शिक्षक के बेटे डॉ. दीपक ने रिसर्च के दौरान कलाकृतियां बनाने में जापानियों की पुरानी तकनीक का भी अध्ययन किया और पाया कि वहां और चीन में लोहा गलाने के बाद सांचे के इस्तेमाल के प्रमाण मिले, जबकि छत्तीसगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में लोहे को गला-गलाकर और पीट-पीटकर ही तैयार की गई। इसलिए लोहे की जंग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है।

कारखानों में इस तकनीक से जंगरोधी लोहा
डा. दीपक के मुताबिक इस रिसर्च को उनका इंस्टीट्यूट आगे बढ़ा सकता है, ताकि सदियों पुरानी तकनीक पर फिर से काम हो सके और दुनिया में तैयार होने वाला लोहा इसी तकनीक से बेहद मजबूत और जंगरोधी बनाया जा सके। अभी अधिकांश जगह लोहे को स्टील में कन्वर्ट करने में केमिकल इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

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