Sunday, May 19, 2024
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ड्यूटी पर लौटने का संघर्ष: ट्रेन हादसे में दोनों पैर कटे, डिप्रेस में खुदकुशी का खयाल आया, लेकिन अब रोज भिलाई से 35 किमी तय कर रायपुर आता है जवान…

जवान अभिषेक अपनी पत्नी और बच्चे के साथ। - Dainik Bhaskar

जवान अभिषेक अपनी पत्नी और बच्चे के साथ।

  • डिप्रेशन से निकलकर खुद पर भरोसे से आगे बढ़ने की कहानी, जो सिखाती है- ज़िंदगी एक हादसे से रुक नहीं जाती

रायपुर/ ये एक ऐसे जवान की कहानी है, जिसके साथ एक हादसा हुआ और उसने दोनों पैर गंवा दिए। एक वक़्त डिप्रेशन का शिकार भी हो गया, लेकिन पत्नी और परिवार की हिम्मत के सहारे उसने खुद को वापस अपने पैरों पर खड़ा किया। पैर नकली थे, पर हौसला असली। यह कहानी है कि भिलाई के जवान अभिषेक निर्मलकर की।

अभिषेक की जुबानी पूरी घटना और ड्यूटी पर लौटने का संघर्ष

मैं भिलाई में रहता हूं। रोज मैं भिलाई से रायपुर आना-जाना करता हूं। 17 जनवरी 2020 की रात को मैं कभी भूल नहीं सकता। मैं उस समय एंटी टेररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) में था। शाम को ट्रेन छूट गई तो रात में दानापुर एक्सप्रेस से घर के लिए निकला था। ट्रेन के जनरल बोगी में काफी भीड़ थी, फिर भी उसमें सवार हो गया। ट्रेन की गेट पर खड़ा हुआ था। भिलाई-3 के आगे अचानक बोगी में धक्का-मुक्की हुई। मैं अपने आप को संभाल नहीं पाया और नीचे गिर गया। मैं ट्रेन के नीचे आ गया।

उसके बाद मुझे याद नहीं है। जब मेरी आंख खुली तो मैं भिलाई के अस्पताल में था। तब मुझे अहसास हुआ है कि मेरा एक पैर नहीं है। मैंने दूसरे पैर को उठाने की कोशिश, लेकिन उठ नहीं पा रहा था। बहुत दर्द था। बेचैनी लग रही थी। मेरा पैर काम ही नहीं कर रहा था। तब डॉक्टरों ने बताया कि एक पैर कट गया और दूसरा भी अलग करना होगा।

दूसरे दिन मेरा ऑपरेशन हुआ और दूसरे पैर भी काटकर अलग कर दिया। तब मैं ऊपर वाले से मिन्नतें करने लगा कि मुझे उठा ले। मेरी जीने की इच्छा खत्म हो गई। दिमाग में एक ही ख्याल आ रहा था कि बिना पैरों के मैं बोझ बन जाऊंगा। हर चीज के लिए दूसरों पर निर्भर रहने पड़ेगा। में पूरी तरह टूट गया था। परिवार वाले लगातार हिम्मत बढ़ाते रहे।

पत्नी जिम्मेदारी उठाने को तैयार…

मेरी पत्नी कुलेश्वरी को हादसे के बारे में इतना बताया गया था कि एक्सीडेंट हुआ। मामूली चोट आई है। वह अस्पताल आती और बाहर से देखकर चली जाती थी। 10 दिन बाद उसे पता चला कि मेरे दोनों पैर कट गए हैं। वह सदमे में आ गई थी। घर पर मातम छाया हुआ था। पर जल्दी उसने खुद को संभाला और फिर वही मेरी हिम्मत बनने लगेगी। वह मेरी जिम्मेदारी उठाने को तैयार थी।

मेरे बुजुर्ग पिता ने भी हिम्मत नहीं हारी। रोज मुझे जीने की और आगे बढ़ने की उम्मीद दिखाते थे। पिता जी हमेशा साथ रहते थे। मैं एक महीने तक एम्स रायपुर में भर्ती रहा। फिर घर गया। तब बिस्तर में रहा। अपनी डेढ़ साल की बेटी अभिख्या और 7 साल के बेटे अभिमन्यु को देखकर बहुत दुखी होता था। उन्हें गोद में भी उठा नहीं पता था, लेकिन उन्हीं की वजह से मुझे हौसला भी मिला कि दोनों बच्चो के लिए बहुत कुछ करना है।

नहीं थी कभी पैरों पर खड़े होने की उम्मीद

मुझे उम्मीद नहीं थी कि कभी पैरों पर वापस खड़ा हो पाऊंगा या फिर खाकी पहनकर ड्यूटी में लौट पाऊंगा। एटीएस के वरिष्ठ अधिकारी और साथी स्टाफ ने मुझे उम्मीद दिलाई कि मैं ड्यूटी पर लौट सकता हूं। पहले की तरह काम कर सकता हूं। उन्होंने मेरी हर तरह से मदद भी की। उन्होंने ही उम्मीद जगाई कि कृत्रिम पैर लगाकर खड़े होने की कोशिश करो।

मैं राजी हो गया। फिर शुरू हुआ कृत्रिम पैरों के सहारे खड़े होने का संघर्ष। हादसे के ठीक 6 महीने बाद मैंने कृत्रिम पैर लगाए और फिर खड़ा हो गया। फिर चलने का अभ्यास किया। कई बार गिरा। फिर संभला। पैर जब जमने लगे तो दोस्तों और परिजनों के साथ बाइक पर बाहर जाने लगा।

फिर 20 अक्टूबर को ड्यूटी में आ गया। ट्रेन बंद होने के कारण अभी बाइक पर रोज दोस्त की बाइक में 35 किलोमीटर की दूरी तय कर रायपुर ड्यूटी करने आ रहा हूं। अब तो मोपेड चलाने की कोशिश कर रहा हूं। घर वाले खुश हैं। सब उस हादसे को भूलने की कोशिश कर रहे हैं।

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